त्रिपदा गायत्री

ऊॅ भूभु‍र्व: स्व: ऊॅॅ तत्सवितुर्वरेण्यं ऊॅ भर्गो देवस्य धीमहि ऊॅ धियोयोन: प्रचोदयात् ऊॅ नम: ।।

उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंतर आत्मा मे धारण करे । वह परमात्मा हमारी बुद्वि को सन्मार्ग मे प्रेरित करे ।

ब्राा जी के कहेनुसार – ब्राज्ञान (गायत्री) की उत्पत्ति स्वयम्भू विष्णु की अंगुलियाँ मथने से जल हुआ । जल से फेन निकला । फेनों से बुद्बुद्ध की उत्पत्ति हुई । उससे अण्ड की और अण्ड से ब्राा हुए । उनसे वायु निकला । अग्नि की उत्पत्ति उससे ही हुई । अग्नि से ऊँकार हुआ । ऊँकार से व्याहृति हुई । व्याहृति से गायत्री हुई और गायत्री से सावित्री । उससे सरस्वती । सरस्वती से सभी वेद हुए । वेदों से सभी लोक हुए और उनसे सभी प्राणी हुए । इसके बाद गायत्री और व्याहृतियाँ प्रवृत्त हुईं।

गायत्री दो प्रकार की होती है– लौकिक और वैदिक । लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारणवष गायत्री का नाम त्रिपदा भी है । त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं । यहॉ उल्लेख करना युक्त है कि त्रिसन्ध्योपासनाओं में प्रयुक्त इस ब्रा–गायत्री का अर्थ यहॉ दिया जाता है । यह कि– परमसत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुणत्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है उसकी मैं उपासना करता हूॅ । त्रिपदा गायत्री के – भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है । गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है –

गभू:, भुव: और स्व: यह तीनो लोक परिन्त विराजमान है ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है । प्राणों का नाम गय है । उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है । गायत्री के भिन्न–भिन्न 24 अक्षर इस प्रकार है :–

ऊँ 1. त 2.त्स 3.वि 4.तु 5.र्व 6. रे 7.णि 8.यं, ऊँ 9. भ 10.र्गो 11.दे 12.व 13.स्य 14.धी 15.म 16.हि ऊँ 17. धि 18. यो 19.यो 20.न: 21.प्र 22.चो 23.द 24.यात् ऊँ ।। नम:।।

मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमु‍र्खैस्त्रीक्षणैयु‍र्क्ता
मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम् । –दइेचय –दइेचय
गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं,
षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ।।

यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राणधारिणी है इन पंच प्राणों के पंच वर्ण है । एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा, और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है । इसके तीन आॅखें है अर्थात् (अ–उ–म् ऊॅं) प्रणव के वर्ण–त्रय के अनुसार वेदत्रय अर्थात् रसवेद, विज्ञानवेद और छन्दोवेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है । इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्यषक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है । तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर है – ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है । ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दू के पवित्र तीर्थ माने जाते है । दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विशयों की द्योतक है । दक्षिण पॉचो भुजाये वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई–पॉच भुजाएं वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग, और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राणशक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है ।

श्रुति भी कहती है कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वम्‘‘ गायत्री ही सबकुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे । कहा गया हे कि ‘गायन्तं त्रायते इति गायत्री‘। गायत्री मन्त्र भी है, और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है ।

देवीयो में स्थान

स्कन्दपुराण के अनुसार–

गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव: ।
गयत्र्ेव परो ब्राा, गायत्र्ेव त्रयी तत: ।।

गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा ब्राा है । अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्राागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देवगण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि, गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारो वेदों की उत्पत्ति हुई है । यह सब ब्रााण्ड गायत्री ही है । वेद, उपनिशद्, वेदों की शाखाएं, ब्रााण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते है । अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते है । गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है । मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं ।