मंत्रो की शक्ति एवं प्रभाव

जो लोग जप के यथार्थ रुप को नहीं जानते और जिन्होने इसका अनुभव नहीं किया है, वह गायत्री मन्त्र की महत्ता और उसकी शक्ति को समझ नहीं सकते । क्याेंकि उन्होने अनुभव नहीं किया है । यथार्थ ही है, जप यज्ञ रीति, नीति, श्रद्धा और प्रीति से अर्थ की भावना को समझकर सत्कर्मों को करते हुए, ज्ञानयुक्त उपासना से किया जाय तो उसका पूर्ण फल प्राप्त होता है । इन बातों में जितनी कमी हो जाती है उसका उतना ही फल कम होगा । परन्तु जप निष्फल नहीं हो सकता प्रत्येक जप का फल अवश्य ही मिलता है । फल चाहे जल्दी मिले या देरी से , लगातार साधना से अन्त में समस्त पापों से मुक्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

शवेताशवतरताम्बर

उपनिशद् में इस तरह बताया गया है । ‘‘अपनी देह को अरनी (नीचे की लकड़ी ) बनाकर ऊँ को उपर की अरनी बनाओं और ध्यानरुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो । जैसे छिपी हुई अग्नि के दर्शन लकडि़यों के परस्पर घर्शण (रगड़) से होते है उसी प्रकार ऊँ कार एवं गायत्री मन्त्र के जप से परशक्ति के दर्शन होते है परम शान्ति एवं मुक्ति प्राप्त होती है ।

‘‘मन एव मनुश्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: ।।‘‘

इस मन को वश में करना, मन को शुद्ध रखना तथा मन को सन्मार्ग में प्रेरित करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये । चिकित्सा की अन्यान्य पद्तियों में मानसिक चिकित्सा पद्धति सबसे महत्वपूर्ण कही गई है । इससे यह समझा जा सकता है कि मनुष्य में एक ऐसी गुप्त शक्ति है जिसका विकास करने से मनुष्य सदानन्द, सदाजयी, सदाशिव और जीवन्मुक्त हो सकता है । यह मानसिक शक्ति आत्म विश्वास है । वेदों में इस शक्ति का भी सम्यक वर्णन किया गया है:–

ऊँ आवात वाहि भेशजं विवात वाहि यद्रूप:। त्वं हि विष्वभेशजो देवानां दूत ईयसे । (ऋग्वेद 10/137/3)

अर्थात्– हे प्राण, हे वायु! तुम सर्व औषधि रुप हो, तुम में ही सब रोगों की औषधियॉ विद्यमान हैं । अत: जब भी कोई मानसिक चिकित्सक प्राण शक्ति, देव शक्ति को विश्वास के साथ नि:स्वार्थ भाव से रोगी के हित साधन के लिये स्वभावत: प्रेरित एवे उत्साहित होकर रोगी के शरीर अथवा किसी अंग या उपांग पर अपना हाथ फिरा देता है, फूंक मार देता है, आंख भरकर देख लेता है या किसी और रुप से छू लेता है तो उस रोगी के शरीर अथवा अंग में चिकित्सक की प्राण–शक्ति प्रवेश करके उसे अपने शक्तिप्रद प्रभाव से प्रभावित करने लगती है और धीरे–धीरे या तत्काल ही वह निरोगी हो जाता है । इसीलिये इस शक्ति को दूसरे में भरनेे के लिये अपनी मानोवृत्ति तथा संकल्प–शक्ति को इस ओर लगाने की परम आवश्यकता है । ऋग्वेद में स्पष्ट रुप से यह आदेश है–

‘‘ अयं मे हस्तो विष्वभेशजम्।‘‘

अर्थात् यह मेरा हाथ संसार भर की औषधि है । शास्त्रों में कहा है:– ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन: । अर्थत्: योगिजन ध्यानद्वारा स्थिर किए हुए मन से जिसको देखते है । ध्यान के लिए मुख्य स्थान हृदय है । मन्त्रयोग की साधना करते समय साधक को चाहिए कि वह शब्द ज्योति और रुप का अनुभव करने का प्रयत्न करे । बालक ध्रुव ने ईश्वर प्राप्ति के लिए योगाभ्यास द्वारा एकाग्र की हुई बुद्धि से अपने हृदय कमल में भगवान् की बिजली के समान चमकती हुई मूर्ति का ध्यान किया । जब इस प्रकार ध्यान करते हुए उसे ऐसा भास हुआ कि वह मूर्ति लुप्त हो गई है, तो उसने घबराकर नेत्र खोले और भगवान उसे उसी रुप में सामने खड़े दिखाई दिये ।

स वै धिया योगविपाकतीव्रया, हृत्पद्मकोषे सुुरितं तडित्पभम् । तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्य बहि: स्थितं तदवस्थं ददर्ष ।।4।9।2।।

बालक ध्रुव ने नारद जी के द्वारा बतलाये गये द्वादशाक्षर मंत्र का ध्यान पूर्वक जपकर छ: मास में भगवान् का साक्षात्कार किया । यही मंत्रयोग का सर्वश्रेष्ठ फल है। इस जगत् में प्रत्येक मनुष्य को अपनी सब प्रकार की इच्छाएॅं पूर्ण करने के लिए मन्त्रजप के समान सरल, सुलभ, अमोघ एवं सर्वश्रेष्ठ दूसरा कोई साधन नहीं है जप से रोगनाश, लक्ष्मी प्राप्ति, आयुष्य वृद्धि, सम्मान प्राप्ति, बुद्धि, विद्या, ज्ञान वृद्धिं स्मरणशक्ति तीव्र होती है , एवं ईश्वर प्राप्ति होती है । इस प्रकार मंत्रयोग सर्वश्रेष्ठ साधन है । जप के भेद तीन प्रकार से बताये गये है:– (1) वाचिक (2) उपांशु और (3) मानस। (1) वाचिक– जो जप मुॅह से स्पष्ट उच्चारण कर किया जाता है, वह ‘वाचिकजप‘ कहलाता है । इस प्रकार के जप से इहलोक में भोगों की प्राप्ति होती है । (2) उपांशु– जो जप मन्द स्वर से मुॅह के अन्दर ही किया जाय उसे ‘उपांशुजप‘ कहते है। इस विधि से जप करने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है । (3) जो जप जीभ व होठों को न हिलाकर मन ही मन किया जाता है उसे ‘मानसजप‘ कहते हैं। इस प्रकार के जप करने से मोक्षप्राप्ति होती हैं और यह अधिक फलदायक होता है । मनुजी ने कहा है :–

विधियज्ञाज्जपयज्ञो, विषिष्टो दशभिगु‍र्णै: । उपांशु: स्याच्छतगुण:, सहस्त्रो मानस:स्मृत: ।।

अर्थात्:– विधिपूर्वक किये जानेवाले यज्ञ की अपेक्षा जपयज्ञ (वाचिक जप) दस गुना श्रेष्ठ है और वाचिक जप से उपांशु जप सौ गुना श्रेष्ठ है तथा इससे मानस जप हजार गुना श्रेष्ठ है । अत: साधक को मानस जप करने का प्रयत्न करना चाहिए । मंत्र लेखन:– इसके महत्व को समझते हुए ब्रलोक वासी परम् पुज्य गुरुवर आचार्य पंडित रामचन्द्र जी शास्त्री ने भक्तों के हितांत मंत्र लेखन के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए मंत्र लेखन के दौरान साधक के स्वयमेव होते जाने वाले मानस जपो को स्थायित्व प्रदान कर दिया। श्री ब्रशक्ति गायत्री सिद्धपीठ की तपोभूमि स्वयं पुज्यनीय गुरुवर के द्वारा लिखित 39,31,227 पंचप्रणव गायत्री मंत्रो की शक्ति का ही दिव्य प्रताप है। तपोभूमि में आस्था रखने वाले प्रत्येक भक्त कोे अनिवार्य रुप से अपने इष्टदेव के मंत्रोे के लेखन का आदेश उनके द्वारा दिया गया है जिसके फलस्वरुप आज लगभग 25 अरब हस्तलिखित मंत्रो के संग्रहण ने तपोभूमि को तीर्थ का स्वरुप प्रदान कर दिया है।