सिंहस्थ–माहात्म्य

स्कन्दपुराण में ‘सिंहस्थ–पर्व‘ का माहात्म्य बतलाने के लिये एक पूरी कथा भी वर्णित है। उसका सांराश इस प्रकार है–
कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान् शिवजी से पार्वतीजी ने परम पुण्यतीर्थ, गोपनीय क्षेत्र, भुक्ति और मुक्ति को देनेवाले उत्तम क्षेत्र के लिये पूछा। उसके उत्तर में शिवजी ने बतलाया कि– एक ऐसे क्षेत्र के बारे में मैं तुम्हें बतलाता हूँ जो कि अब तक किसी को भी नहीं बतलाया गया है, वह रहस्यमय है ओर मुत्तिदाता है। जिसके स्मरणमात्र से यम–नरक की यातना विलोप हो जाती है। वह है– महाकालवन और उसमें स्थित अवन्ती क्षेत्र। यहाँ क्षिप्रा के दर्शन और उसमें स्नान का महत्व दिखलाते हुए ‘सिंह–राशि के गुरु में मेष का सूर्य और तुला का चन्द्र, स्वाती नक्षत्र एवं सिद्धि–योग, इन पाँचों का योग, जिसे पंचात्मयोग कहते हैं, उसमेें स्नान–दानादि का माहात्म्य सभी क्रिया को सफल बनाने वाला कहा गया है। कुरुक्षेत्र, काशी और प्रभास–क्षेत्र से भी अधिक माहात्म्य क्षिप्रा का है।
सिंहस्थ मेें स्नान का माहात्म्य सर्वोपरि दिखया हैं। वेद–विक्रयी, स्वाध्याय–संध्या से रहित, दुष्टबुद्धि,नास्तिक,शय्यादान लेनेवाला तथा देव, गूरु एवं ब्रााण के द्रव्य का हरण करनेवाला भी यदि उपयु‍र्क्त पर्व के समय स्नान करता है तो वह सभी पापों से छूट जाता है। इसके पश्चात् दशयोग–

  • वैशाख मास,
  • शुक्लपक्ष,
  • सिंह का गुरु,
  • उच्च का सूर्य,
  • तुला का चन्द्र,
  • स्वाती नक्षत्र,
  • पूणमा तिथि,
  • व्यतिपात–योग,
  • सामवार तथा
  • कुशस्थली–उज्जयिनी

तीर्थ– की महिमा और दुर्लभता का वर्णन करते हुए स्नानादि का महत्त्व भी बतलाया है।

क्षिप्रानदी तीनों लोको में दुर्लभ है, प्रेत–मोक्षकारी है और सिंहस्थ स्नान–कर्ताओं के मनोवाच्छित को पूर्ण करने वाली है। विभिन्न ऋषियों के पूछने पर नारदजी ने भी सिंहस्थ की महिमा विस्तार से बतलाई है।

क्षिप्रा में वैशाखमास में स्नान करने का और स्नानादि करने का माहात्म्य तो है ही, किन्तु पूरे मास तक यहाँ स्नानादि सम्भव न हो, तो मात्र पाँच दिन ही स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते है और पूरे मास के स्नान का फल भी मिलता हैै।
भारतीय आस्तिक जनता इन्हीं सब विशेषताओं के कारण अतिप्राचीनकाल से ऐसे परमपुण्यदायी महापर्वो पर आकर तथा धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न कर पुण्यलाभ प्राप्त करती आ रही है। ऐसे पवित्र पर्वो पर सम्मिलित होने के लिये सम्पूर्ण देश के विभिन्न स्थानों पर अपनी–अपनी साधनाओं और धामक आराधना–उपासनाओं में तत्पर रहनेवाले सन्त, महन्त और उनके अनुयायी साधुगण एवं गृहस्थ सेवाभावी जन भी अपार संख्या में पधारते हैं, जिनके दलों के स्नानादि की सुव्यवस्था के लिये नियम बने हुए हैं। स्नान के लिए आगमन के समय विशाल चल–समारोह निकलते हैं तथा स्नान–स्थान, विधि आदि भी निर्धारित हैं। इन सब के एकत्र दर्षन, सतसंग, प्रवचन, उपदेश–श्रवण और सेवा–शुश्रूशा का लाभ भी सहज सुलभ हो जाता है।

प्रारम्भ:–

यह महापर्व अति प्राचीनकाल से मनाया जाता रहा हैं, इसका एक प्रमाण महष सान्दीपनि के आख्यान से भी प्राप्त होता है। वह भी अनुशीलन–योग्य है, अत: यहाँ प्रस्तुत हैैं। पौराणिक आख्यानों में ‘समुद्र–मथन‘ का आख्यान सर्वविदित है। देव और दानवों की साझेदारी में यह मन्थन हुआ था और इसका मूल उद्देष्य था ‘अमृत–प्राप्ति‘। विलक्षण शक्तिशाली देव–वर्ग और दानव–वर्ग में अमृत–प्राप्ति के लिए अदम्य उत्साह था किन्तु समुद्र की खोज और अमृत की प्राप्ति कोई साधारण कार्य नहीं था, अत: सर्वप्रथम परस्पर मैत्रीपूर्वक संगठन हुआ। श्रम के लिये दोनों वर्ग कटिबद्ध हुए और लक्ष्य की सिद्धि के लिए सहयोगियों को भी अपना लिया। भगवान् विष्णु ने कर्म बनकर पीठ पर मन्दराचल को मथनी के रुप में धारण किया। सर्पराज वासुकि को रस्सी बनने के लिए सन्तुष्ट किया और मुख–भाग को दानवों ने तथा पुच्छ–भाग को देवगणों ने ग्रहण कर मंथन आरम्भ किया। संगठन और श्रम–पूर्वक किये मंथन रुप तप के समक्ष समुद्र नतमस्तक हुआ और क्रमश: एक से एक रत्न अपत हुए। अन्त में अमृत–कलश भी आया, जिससे सभी प्रसन्न हो गये। तदनन्तर अमृत के वितरण की बारी आई तो दोनों वर्गो ने उसे हडपने के विचार बाँधने आरम्भ किये। इसी बीच देवराज इन्द्र ने अपने युवा–पुत्र जयन्त को अमृत–कलश लेकर भागने का संकेत कर दिया। जयन्त को कलश लेकर भागते देख दानवों को देवताओं की चाल समझते देर नहीं लगी परिणाम–स्वरुप देव–दानवों में भयंकर संग्राम छिड गया। कहते हैं यह संग्राम देवताओं के 12 दिन अर्थात् मनुष्य के 12 वर्षो तक चला था। इस 12 वर्षो के भीषण संग्राम में जयन्त चार स्थानों पर दानवों की पकड में आ गया था। आपसी संघर्ष और छीना–झपटी में, अमृत की कुछ बूँदे इन्हीं चार स्थानों– 1 प्रयाग, 2 नासिक, 3 उज्जयिनी, और 4 हरिद्वार पर छलक गई थी, किन्तु देवताओं के संगठन एवं युक्ति–प्रयोग ने उनको सफल नहीं होने दिया।

सभी देवों में से चन्द्र, सूर्य और गूरु का अमृत–कलश के संरक्षण में विशेष सहयोग रहा था। चन्द्र ने कलश को गिरने से, सूर्य ने फूटने से तथा बृहस्पति–गुरु ने दानवों के हाथों में जाने से बचाया था।

यथा– चन्द्र: प्रवणाद् रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद् दधौ।
दैत्येभ्यश्च गूरु रक्षां ’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’।। इत्यादि।

इस कारण इन तीनों ग्रहों की विशिष्ट स्थिति में उपयु‍र्क्त चारों स्थानों/तीर्थो पर अमृत–बिन्दु के गिरने से ये अमरत्व को प्राप्त हो गये। यहाँ बहनेवाली नदियाँ

  1. त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती),
  2. गोदवरी,
  3. क्षिप्रा और
  4. गंगा

अमृतमयी बन गई। यही कारण है कि इन तीनों ग्रहों की विशिष्ट स्थिति पर उपयु‍र्क्त चारों तीर्थो में पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है।