पुज्य गुरुदेव
।। जीवनी।।
अद्वितीय विभूति अनेक शास्त्रों के ज्ञाता आचार्य पं.रामचन्द्रजी शास्त्री का जन्म रायपुर मेवाड़ (राजस्थान) के सम्भ्रांत गुर्जर गौड ब्राण परिवार में वि.सं. 1968 (सन् 1911) मा.सु पंचमी को हुआ। आपके पूज्य पिताजी श्री नारायणजी त्रिवेदी (शास्त्री) उच्चकोटि के ज्योतिषी, विद्वान एवं हरिभक्त थे। आपका ज्ञानार्जन क्षेत्र अजमेर, भीलवाड़ा तथा उज्जैन रहा।
आप संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होकर ज्योतिष, कर्मकाण्ड, वेदों एवं पुराणों के ज्ञाता थे। बाल्यकाल में ही आप उज्जैन के निकट चिकली ग्राम में अपने काका साहब पंडित गोविंद राम जी त्रिवेदी के यहां दत्तक पुत्र के रुप में आ गए थे। यज्ञोपवित के बाद 7 वर्ष की आयु में ही नेपाल से आये एक दिव्य सन्त स्वामी नित्यानन्दजी ने बालक रामचन्द्र को अपने निकट बुला कर पंच प्रणव युक्त बाला–बीज गायत्री मंत्र से दीक्षा आशीर्वाद दिया तब से आपने तीन गायत्री पुरश्चरण किए। 13 वर्ष की आयु में ही गायत्री माता के आर्शीवाद प्राप्ति हेतु अखण्ड ज्योति की स्थापना के फलस्वरुप वेद माता ने गुरुजी बालक पर प्रसन्न होकर अभय वर प्रदान किया। आपके ताऊजी पंडित हरदेव जी त्रिवेदी निवासी सोलन हिमाचल प्रदेश के प्रख्यात ज्योतिशाचार्य होकर विश्वस्तरीय ‘ज्योतिष्मति‘ एवं विश्व विजय पंचाग के लेखक प्रकाशक थे उनकी भी आप पर विशेष कृपा रही वहीं आपके ज्येष्ठ भ्राता पंडित मांगीलाल जी जो हरिकथा वाचक थे उन्ही कि प्रेरणा से आपने गायत्री मंत्र लेखन प्रारम्भ किया और माँ गायत्री कि प्रेरणा से गायत्री मंत्र लेखन साधना का लक्ष्य बनाया।
15 वर्ष की आयु में विक्रम संवत् 1983 (सन् 1926) को साधना के दौरान भगवत कृपा वश दिव्य ज्योति के दर्षनो से अभिभूत होकर आपने श्री गायत्री अखण्ड दीपक प्रज्वलित कर उनकी स्थापना की। तभी से धृत और तेल के दीपको का तपोभूमि मेें अहर्निश अखण्ड प्र्रज्वलन हो रहा है । श्री मोहन लाल जी निवासी खाचरोद जिला उज्जैन कि पुत्री कुमारी पार्वती देवी से आपका विवाह संपन्न हुआ कुछ वर्षो तक निकट के ग्राम चिकली में साधना कर प्राचीन उज्जयिनी नगरी के मारुति गंज क्षेत्र मे एक गली के मोड पर गायत्री के अन्नय भक्त व महान उपासक आचार्य पं.रामचंद्र शास्त्री ने श्री गायत्री अखण्ड दीपक प्रस्थापित कर उस पुराने से मकान को अपनी तपोभुमि बनाकर गहन साधना शुरु की साधना के फलस्वरुप भगवती की प्रतिमा विराजित करने की प्रबल उत्कंठा मन मे उत्पन्न हुई। वि.स. 1993 (सन् 1936) में स्वप्न में प्रात: 4 बजे हुई आकाशवाणी. ‘‘उठ क्षिप्रा के ओखरेश्वर घाट पर मैं तेरा इंतजार कर रही हुॅ‘‘ के बाद कोतुहल पुर्वक जब तुरंत स्नान हेतु घाट पर पहुॅचे तो वहा उन्होंने माँ काली की काष्ठ प्रतिमा नदी मेें तैरती हुई प्राप्त हुई।
पुलकित हृदय से भगवती की प्रतिष्ठा उन्होने की किंतु उक्त प्रतिमा बगैर हाथो की होने के कारण जयपुर से एक गायत्री विग्रह लाकर प्रतिष्ठित किया जाए ऐसी प्रेरणा मन मे उत्पन्न हुई। आश्चर्यजनक रूप से एक दिन पश्चात ही विक्रम संवत् 1994 में शास्त्रीजी की अनुपस्थिति में मारूति गंज उज्जैन स्थित इनके भवन जो इनकी तपस्थली था पर जहॉ पूर्व से ही भगवती काली और अखण्ड दीपक स्थापित थे स्वत: प्रेरित एक संत अपने माथे पर रखकर मॉ त्रिपदा गायत्री की विशाल मूर्ति और कुछ दक्षिणा द्रव्य लाये और वहाँ रखकर चुपचाप चले गये। वही पंचमुखी दशभुजाधारी गायत्री की प्रतिमा आज तपो भूमि में तलमंजिल पर विराजीत है। कुछसमय पश्चात् श्री ब्रा गायत्री मंदिर के निर्माण की इच्छा जागृत होने पर माँ की ही आर्शीवाद से इस भव्य सिद्ध पीठ को अपनी तपोभूमि पर रचा। आप प्रतिदिन प्रात: कृत्य से निवृत हो कर 500 गायत्री मंत्र लेखन के पश्चात् भोजन एवं यथासंभव 1008 मंत्र प्रतिदिन लेखन के पश्चात रात्रि विश्राम करते थे। आप सान्दीपनी आश्रम के संचालक भी रहे। शास्त्री जी यज्ञानुष्ठान का आचार्यतत्व भी करते थे। उज्जैन में 108 कुण्डों का विशाल गायत्री यज्ञ व पिपलोदा बागला के पास ग्राम मगदनी ( ऋषि जमदग्नी की तपस्थली का अपभ्रंश) में विशाल यज्ञ सम्पन किया प्रत्यक्ष दर्षियों के अनुसार यज्ञ की पुर्णाहुति के समय नदी का जल दो तीन फिट ऊपर उठ आया व नदी जलधारा के मध्य से दुग्ध धारा फुट पडी इस चमत्कार को देख वहॉ उपस्थित उधोग पति श्री जी. बिडला ने शास्त्री जी को नमन कर 1 लाख रुपयों का चैक दिया जिसे शास्त्रीजी ने विन्रमता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। बाद मे माँ कृपा से श्री ब्रा गायत्री मंदिर तपोभूमि में शनै: शनै: बनता गया।
20 मई 1977 को प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही बाल गुरु बुद्धि प्रकाश व उनके अग्रज पंडि़त कुलदीपक का यज्ञोपवित संस्कार भी संपन्न हुआ तभी से यहाँ मंदिर में धर्म, जाति, वर्ण भेदभाव के बिना हजारों भक्त आते रहे है व सभी की मनोकामनाये पूर्ण होती रही है। आज भी भक्त गण गायत्री माता या अपने इष्ट देवता का 108 मंत्र लिखकर अपनी समस्या के समाधान हेतु माता की चौखट पर आवेदन के रुप में रख देते है। पं.रामचंद्र जी शस्त्री की गायत्री रहस्य दर्पण, गायत्री चालीसा, लघु दुर्गा, आरती, भजन आदि पुस्तकें भी प्रकाशित हुई। अपने मोक्ष सेे छ: माह पूर्व स्वयं अपनी मुर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिये बैठे पूज्यनीय शास्त्रीजी कि भावनाओं को उनकी मंझोली पुत्री श्रीमति शकुंतला जोशी ने समझ गई कि वे अपने प्राण मूर्ति में हस्तांतरित कर जगत से विदा लेने कि तैयारी कर रहे है तत्काल उन्होने शास्त्रीजी का हाथ खींचते हुए उन्हें आसन से हटा दिया जिस पर शास्त्री जी ने क्रोधित होकर कहा ‘‘ क्या मुझे कांच के बगंले में ले जाकर मारोगे अतंत: 6 माह पश्चात् अत्यंत रुग्णावस्था में मजबुरी वश उन्हें इंदौर स्थित चौईथराम हास्पिटल के आई.सी.यु.(कांच का बंगला) में भर्ती किया गया जहां ये महान मार्ग दर्शक दिव्य सन्त संवत् 2046 मा.कृ. पंचमी को (78 वर्ष कि आयु में )अपने भक्त्तों को बिलखता छोडकर वेदमाता की दिव्य गोदी में जा बैठे। पृथ्वी लोक पर उनके अंतिम दिनों में उनके अत्यंत निकट रहकर सेवा कर रहे भक्तों और परिजनों ने उनके कपाल के दोनो और उभरी हुई हरी नसो का स्पष्ट रुप से अंकित ऊँ शब्द के लगातार दर्शन का पूण्य अर्जित किया। प्राचीन अवंतिका नगरी में उनकी मोक्ष यात्रा में शामिल होने के लिए बगैर सूचना के ही दूर–दूर से बडी संख्या में उनके अनन्य भक्त पहुँच गए जिन्हें स्वयं भी ज्ञात नहीं था कि वे गुरुवर कि अंतिम यात्रा में शामिल होने जा रहे है।
उन्हे सिफर् उनके गुरुवर के दर्शन करने का स्वप्न में आदेश/आभास हुआ था। अनेक भक्त रास्ते में अनायास ही उनके मोक्ष यात्रा के दर्शनो से अचंभित थे। स्थानिय पौराणिक श्वशान औखरेश्वर घाट जहां से उन्हें माँ भगवती काली की प्रतिमा स्वप्न माध्यम से प्राप्त हुई थी वहीं पर उनके नाती कुलदीपक जोशी के हाथों इस विभूति का अंतिम संस्कार सायं 4 बजे संपन्न हुआ। अपने सम्पूर्ण अवतार काल में आपने 39,31,227 गायत्री मंत्रो का लेखन किया जो आज भी उनकी मौन साधना के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए उपलब्ध है। वे अपने पीछे दिव्य ब्र गायत्री लोक के साथ तीन पुत्रियां सौ. कलावती वासुदेव शर्मा, सौ. शकुंतला शिवप्रसाद जोशी व सौ. मंजूला महेश शर्मा तथा 11 नाती छोडकर ब्रलोक गमन कर गए किन्तु सूक्ष्म रुप में यहीं हमेशा विद्यमान है और रहेगे।