पूण्य सलीला माँ क्षिप्रा
अपनी प्राचीनतमता, पवित्रता एवं पापनाशकता आदि के कारण प्रसिद्ध उज्जयिनी की प्रमुख नदी क्षिप्रा सदा स्मरणीय है। यजुर्वेद में क्षिप्रे अवे: पय: पद के द्वारा इस नदी का स्मरण हुआ है। निरुक्त में क्षिप्रा कस्मात्? इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है कि–शिवेन पातितं यद् रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात्। अर्थात् क्षिप्रा क्यों कही जाती है? इसका उत्तर था–शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है– नदी के रुप मे बह रहा है, अत: यह क्षिप्रा है।
क्षिप्रा और क्षिप्रा ये दानों नाम अग्रिम ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ भी क्रमश: इस प्रकार प्रस्तुत हुई हैं–शिवं प्रापयतीति क्षिप्रा और सिद्धिं प्राति पूरयतीति क्षिप्रा। और कोशकारों ने क्षिप्रा का अर्थ करधनी भी किया। तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन और से बहने के कारण करधनीरुप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई। इन दोनों नामों के साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह इसके जल–प्रवाह की द्रुतगति से सम्बद्ध प्रतीत होता है। स्कन्दपुराण में क्षिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है । यथा–
नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्राया: सद्दशी नदी।
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्ति: कच्चिदासेवितेन वै ।।
ळे वत्स! इस भू–मण्डल पर क्षिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से, तथा स्मरण, स्नानदानदि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
व्हीं क्षिप्रा की उत्पत्ति के संबंध में कथा भी वर्णित है, जिसमें कहा गया है कि– विष्णु की अँगुली को शिव के द्वार काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रुप प्रवाहित हुई। इसीलिये विष्णुदेहात् समुत्पन्ने शिप्रे ! त्वं पापनाशिनी– इत्यादि पदों से क्षिप्रा की स्तुति की गई है। वहीं अन्य प्रसंग से क्षिप्रा को गंगा भी कहा गया है। पंचगंगाओं में एक गंगा क्षिप्रा भी मान्य हुई है। अवन्तिका को विष्णु का पद–कमल कहा है और गंगा विष्णुपदी है, इसलिये भी क्षिप्रा को गंगा कहना नितान्त उचित है। कालिकापुराण में क्षिप्रा की उत्पत्ति– मेधातिथि द्वारा अपनी कन्या अरुन्धती के विवाह–संस्कार के समय महर्षि वसिष्ठ को कन्यादान का संकल्प अर्पण करने के लिये क्षिप्रासर का जो जल लिया गया था, उसी के गिरने से क्षिप्रा नदी बह निकली बतलाई हैं। क्षिप्रा का अतिपुण्यमय क्षेत्र भी पुराणों में दिखाया है–
शिव सर्वत्र पुण्यास्ते ब्रहत्यापहारिणी।
अवन्तयां सविशेषेण क्षिप्रा युत्तरवाहिनी।।
तथा– संगम नीलगंगाया यावद् गन्धवती नदी।
तयोर्मध्यो तु सा क्षिप्रा देवानामपि दुर्लभ।।
क्षिप्रा नदी वैसे तो सर्वत्र पुण्यमयी है, ब्रहत्या के पाप का निवारण करनेवाली है, किन्तु उज्जयिनी में उत्तरवाहिनी होने पर और भी विशिष्ट हो जाती है। नीलगंगा के संगम से गन्धवती के बीच जो क्षिप्रा बहती है वह देवों के लिए भी दुर्लभ है।
इसलिए आस्तिक–जगत् में क्षिप्रा के नामस्मरण को महत्व भी प्रतिपादित है।
क्षिप्रा शिप्रेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्य: शिवलोंक स गच्छति।।
सौ योजन (चार सौ कोस) दूर से भी यदि कोई क्षिप्रा–क्षिप्रा ऐसा स्मरण करता है तो वह सब पापों से छूट जाता है और शिवलोक को प्राप्त करता है।
वर्तमान स्थिति के अनुसार क्षिप्रा का उद्गम म.प्र. के महू नगर से 11 मील दूर स्थित एक पहाड़ी से हुआ यह मालवा में 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल–(चर्मण्ती) में मिल जाती है। इसका संगम–स्थल आज सिपावरा के नाम से जाना जाता है, जो कि सीतामऊ( जिला मन्दसौर) और आलोट के ठीक 10–10मील के मध्य में है। वहाँ क्षिप्रा अपने प्रवाह की विपुलता से चम्बल मेें मिलने की आतुरता और उल्लास को सहज ही प्रकट करती है।
शास्त्रों में आध्यात्मिक–साधना के लिए नदीतटों का आश्रय उत्तम माना जाता है। ऋषि मुनि, साधकगण आदि सांसारिक झंझटों से मुक्त रहते हुए ऐसी पवित्र नदियों के तटों पर ही अपने आश्रमादि बनाकर उपासना करते थे। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में क्षिप्रा के वर्णन के अतिरिक्त इसके तटों की ओर तटों पर बने हुए तीर्थस्थलों (घाटों) की भी महिमा बतलाई है। पिशाचमुक्तेश्वर–तीर्थ के समीप क्षिप्रामन्दिर अतिप्राचीन काल से यहाँ रहा है। अब उसका जीर्णेद्धार करके उसकी प्रतिष्ठा–वृद्धि भी की गई है। रामघाट, नृसिंहघाट आदि भी अपनी महिमा बनाए हुए है तथा वहाँ शिव, विष्णु राम, कृष्ण, हनुमान, गायत्री आदि देवताओं के मन्दिर भी अपनी महत्ता रखते है। इसी प्रकार क्षिप्रा के सामनेवाले तट पर बने घाट और दत्तअखाड़े की भी स्वतन्त्र महत्व है।
उज्जयिनी क्षिप्रा के उत्तरवाहिनी होने पर पूर्वीतट पर बसी है। यहीं ओखलेश्वर से मंगलनाथ तक यह पूर्ववाहिनी हैं। अत: सिद्धवट और त्रिवेणी में भी स्नान–दानादि करने का माहात्म्य है।